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अग्ने॒ यजि॑ष्ठो अध्व॒रे दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज। होता॑ म॒न्द्रो वि रा॑ज॒स्यति॒ स्रिधः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne yajiṣṭho adhvare devān devayate yaja | hotā mandro vi rājasy ati sridhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। यजि॑ष्ठः। अ॒ध्व॒रे। दे॒वान्। दे॒व॒ऽय॒ते। य॒ज॒। होता॑। म॒न्द्रः। वि। रा॒ज॒सि॒। अति॑। स्रिधः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:10» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् के कृत्य को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान (होता) देनेहारे (मन्द्रः) प्रसन्न करने तथा (यजिष्ठः) अतिशय यज्ञ करनेवाले ! आप (अध्वरे) अहिंसारूप यज्ञ में (देवयते) दिव्य गुण-कर्म-स्वभावों की कामना करनेवाले के लिये (देवान्) उत्तम गुणों को (यज) संयुक्त कीजिये जिससे (अति) (स्रिधः) विद्या आदि उत्तम व्यवहार के विरोधी पुरुषों को उत्तम अधिकारों से पृथक् करके (वि) (राजसि) अत्यन्त प्रकाशित होते हो, इससे उत्तम सत्कार करने योग्य हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि उत्तम प्रकार से यन्त्रों में संयुक्त किया हुआ शिल्पविद्या आदि व्यवहारों की सिद्धि करके दारिद्र्य का नाश करता है, वैसे ही पूजित हुए विद्वान् पुरुष विद्या का प्रचार करके अविद्या आदि दुष्ट स्वभावों का नाश करते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वत्कृत्यमाह।

अन्वय:

हे अग्ने होता मन्द्रो यजिष्ठस्त्वमध्वरे देवयते देवान् यज यतोऽतिस्रिधो निवार्य्य विराजसि तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा (अध्वरे) अहिंसामये यज्ञे (देवान्) दिव्यान् गुणान् (देवयते) दिव्यान् गुणकर्मस्वभावान् कामयमानाय (यज) सङ्गमय (होता) दाता (मन्द्रः) आह्लादकः (वि) (राजसि) विशेषेण प्रकाशसे (अति) उल्लङ्घने (स्रिधः) विद्यादिसद्व्यवहारविरोधिनः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः संप्रयुक्तः शिल्पादिव्यवहारान् संसाध्य दारिद्र्यं विनाशयति तथैव सेविता विद्वांसो विद्योन्नतिं संसाध्याऽविद्यादिकुसंस्कारान् विनाशयन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी उत्तम प्रकारे यंत्रात संयुक्त केलेली शिल्पविद्या इत्यादी व्यवहाराची सिद्धी करून दारिद्र्याचा नाश करतो, तसेच विद्वान पुरुष विद्येचा प्रचार करून अविद्या इत्यादी कुसंस्काराचा नाश करतात. ॥ ७ ॥